Sufi Prem-1
“मैं” से “तू” तक चलते चलते
इक ऐसा मोड़ भी आता है
जब मैं ही “मैं ” को खो देता है
और “तू” ही “तू’ रह जाता है… अब तक मैं सूफी प्रेम को इतना ही समझ पाया हूँ । इससे आगे समझने का शायद ज़िन्दगी भर दावा नहीं कर पाऊंगा क्योंकि जब भी इससे आगे कुछ सोचने का विचार मन में आता है, तो मन मुझसे सवाल करता है कि क्या तुमने ‘मैं’ से “तू” तक के सफ़र की शुरुआत कर ली? क्या ‘मैं” से “तू” तक के सफ़र के सभी पड़ाव समझ में आ गए? क्या जान गए कि “मैं” और “तू” के बीच दूरी क्यों है? क्या किसी को समझा सकते हो कि “मैं” क्या है और “तू” क्या? क्या यह पता चल गया कि प्रेम में फना होना जज़्बा है या हुनर है? प्रेम का दर्द सज़ा है या इनाम है? प्रेम बगावत सिखाता है या इबादत सिखाता है? प्रेम “तुम ” से “तू” तक का सफ़र है या “मैं” से “मैं” तक का? मैं अक्सर अपने आप को ऐसे सवालों के जंगल में चुप चाप खड़ा पाता हूँ। ऐसा लगता है जैसे सूफी- प्रेम को समझने की कोशिश करने का गुनाह करने के कारण किसी ने मेरे शब्द छीन लिए हैं । #SufiPrem(Irshad_Kamil)
6 responses to “Sufi Prem-1”
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Owsemmmm sir ji
JAG sunya there jaisa na kai
S/W Irshad Bhai
Agar Aap Sufi Parem Par vistrit me prkash dalte to hamare jaise nabina ko dekhane me sahuliyat hogi
Azad Ansari, Tukdon mein ye Silsila thoda aur chalega. Aap Padhte rahein.
मैंने प्रेम को सोचना बंद कर दिया बस ये क़ुबूल कर लिया कि मैं खो गयी हूँ। जब ‘तुम’ मुझे मिल जाओगे ‘मैं’ मुझे मिल जाऊँगी। और ‘तुम’ की तलाश नही है बस ”तुम” तक का सफर जिंदगी है।
पलक, बहुत सही और सच्ची बात कर रही हैं आप। हौसला बुलंद रहे।