Sufi Prem-5
इश्क़ असां नाल ऐही कीती लोक मरेंदे ताने
दिल दी वेदन कोई ना समझे अन्दर देस बेगाने
ये बेगानगी और परायापन सिर्फ बाबा बुल्ले शाह को ही नहीं होता बल्कि आज भी हर उस इन्सान को महसूस होता है जो प्रेम की पीड़ा सह कर प्रीतम की गली में जाना चाहता है । प्रेम का सूफियाना और फ़कीराना अन्दाज़ ये जानता है कि प्रेम में पीड़ा है और पीड़ा में ही प्राप्ति है । इस पीड़ा की शिद्दत जानलेवा भी हो सकती है । विशुद्ध प्रेम के पैग़म्बर आदिकाल से विशुद्ध प्रेम के इच्छुकों को ये बात समझाते आये हैं,
जो तैं प्रेम खेडन का चाओ
सिर धर तली गली मोरी आओ
गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज ये वाणी ‘मैं’ से ‘तू’ तक के सफर की पीड़ा का ही बयान है । पंजाब की मिट्टी में सूफी प्रेम का इत्र बाबा फरीद ने भी बिखेरा है, शाह हुसैन ने भी और सुलतान बाहू ने भी । इश्क़ की नमाज़ पढ़ते हुये इश्क़ हक़ीक़ी को सबने सजदा किया है । प्रेम पगे प्रेमी को अक्सर प्रेमिका में ख़ुदा मिला है और ख़ुदा में प्रेमिका या प्रेमी । विशुद्ध प्रेम पुजारी हर दिखावे से परे है, इश्क़ नमाज़ी की इबादत की अदा दुनियावी इबादतों से अलग है ।
आशिक़ पढ़न नमाज़ प्रेम दी जिस विच हरफ ना कोई हू
जीभ ते होंठ ना हिल्लन बाहू खास नमाज़ी सोई हू
इन शब्दों में बताया है सुलतान बाहू ने कि प्रेम की नमाज़ कैसी होती है । मुझे हमेशा यह महसूस हुआ है कि सूफीमत अपने वैचारिक धरातल पर इतना व्यापक है कि पूरी कायनात को अपने भीतर समेट लेता है । सूफी प्रेम के सूत्र हिन्दोस्तान में निराकार प्रेम या साकार प्रेम की सीमित मान्यताओं से कहीं अलग खड़े हैं ।#SufiPrem_5
4 responses to “Sufi Prem-5”
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प्रेम को किसी धर्म अथवा सिद्धांत से जोड़ कर देखना व्यर्थ है। प्रेम सर्वोपरि है। जहाँ तक आपने हिंदुस्तान की बात कही है तो बता दूँ कि गोपियों का प्रेम प्रेम की पराकाष्ठा का सर्वोच्च प्रमाण है। आप श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध का अथवा सूरदास के भ्रमरगीत का गहन अध्ययन करें तो आप गोपियों के प्रेम अथवा उनके विरह गीत को सूफी प्रेम के समकक्ष पायेंगे।
प्रेम शरीर का नहीं, आत्मा का विषय है। आत्मा परमात्मा का अंश है। आत्मा का परमात्मा के प्रति किया गया अनन्य प्रेम ही गोपी प्रेम है, सूफी प्रेम है। जिसे आप सूफ़ी प्रेम कहते हैं उसी को रागानुराग भक्ति की संज्ञा दी गयी है। यह आज के समय की विडम्बना ही है आज की पीढ़ी पुराणों में वर्णित इस प्रेम की परिभाषा से सर्वथा अनभिज्ञ है।
डॉ जयश्री सिंह जी, इस वैचारिक आदान-प्रदान के लिए आपका आभार। आप सही कह रही हैं प्रेम जाति या समाज से ही नहीं बल्कि देशकाल से भी परे होता है। लेकिन गोपियों के प्रेम के विषय में मैं बहुत आदर के साथ आपसे यहाँ असहमत होना चाहूँगा। वह सूरदास का भ्रमरगीत हो या नन्द दास का, विद्यापति के पद हों या कुंभन दास के, इन सभी में गोपियाँ कृष्ण के मूर्त रूप को जानती हैं और निजी तौर पे उनका कान्हा के साथ मेल-मिलाप, वार्तालाप हो चुका है, और वो ये भी नहीं कहतीं की हम ही कृष्ण हैं या हम में ही कृष्ण है। (विद्यापति ने तो उनकी मन पीड़ा से अधिक देह पीड़ा का वर्णन किया है) बल्कि प्रतीक्षा में व्याकुल रहती हैं और उद्धव से उनके संदेसे लेती हैं मेरे विचार में इस लिहाज से ये सकारात्मक प्रेम है। जबकि मीरा ने गोपियों की तरह ना कृष्ण को देखा है, ना छुआ है, ना बात की है लेकिन फिर भी मीरा कृष्ण प्रेम में स्वयं को खोये हुए हैं। ना उसे दुनिया की चिंता है, ना दीन की और ना ही देह की इसलिए मुझे वो निराकार प्रेम यानि सूफी प्रेम के दायरे में दिखाई देती हैं।
पर गोपियों के लिए कृष्ण भगवान् नहीं सखा हैं। रही बात पुराणों की तो उससे सिर्फ आज की पीढ़ी ही नहीं आज से पहले की कई पीढ़ियां भी अनजान हैं।