December 26, 2009

Sufi Prem-7

इश्क जिंन्हा  दे हड्डी रचिया, रेहन ओ चुप चुपाते  हू
लूं लूं दे विच लख ज़ुबाना, करन ओ गूंगी  बातें हू
 हज़रत  सुल्तान बाहू का ये एहसास आज भी हिंदुस्तान के हर सच्चे प्रेमी को राह दिखाने वाला है। हर प्रेमी का अपने प्रेम में  रूहानियत ढूँढ़ना हमारे आम फ़हम एहसासों में अनजाने सूफी धारा की होंद का ही परिणाम है।
कबीर, मीरा ,बुल्ले शाह और बाहू की बात करने के बाद अब बहुत जायज़ सवाल उठाया जा सकता है कि सूफी- प्रेम हिन्दुस्तानी समाज की रगों में कब और कैसे  उतर गया? अगर किताबी तौर से देखें  तो सूफीमत को इस्लामी रहस्यवाद के साथ जोड़ा जाता है । वो मुसलमान जो घर-दर त्याग कर मस्जिद में रहते थे, आरंभिक सूफी थे। लेकिन तारीखों के हवाले से माना यह जाता है कि  12वीं शताब्दी में हिन्दुस्तान में इस्लामी राज्य की स्थापना के बाद मुल्तान, दिल्ली और लाहौर में सूफीमत की लहर दौड़ गयी । जैसे-जैसे इस्लाम हिन्दुस्तानी मिट्टी  को अपनाता गया ,वैसे-वैसे सूफी प्रेम हिन्दुस्तानियों के दिलों में घर करता गया। मुझे नहीं लगता कि  आज हिंदुस्तान का ऐसा कोई नौजवान है जिसे सूफी शब्द की जानकारी नहीं है। वो जानकारी किस सीमा तक सही या गलत है, यह एक अलग मुद्दा है । आज के युवा का सूफी प्रेम की तरफ झुकाव का मुख्य कारण किसी  हद्द  तक आज की फिल्में भी हैं। फिल्मी संगीत में सूफी गीतों का तो जैसे रिवाज सा हो गया है, इस रिवाज को कौन कितनी इमानदारी से निभा रहा है ये एक अलग बात है । हाल फ़िलहाल की एक फिल्म ने इरानी सूफी कवि रूमी को युवाओं में अच्छा-ख़ासा प्रसिद्ध कर दिया, खासकर रूमी की यह पंक्तियाँ…
गलत और सही के पार
एक मैदान है
मैं वहां मिलूँगा तुझे
#SufiPrem_7

One response to “Sufi Prem-7”

  1. Abhishek B says:

    Bahut khoob sir. Tarika chahe films ho ya literature, sufi dhara hindustan me behti rahe.

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