December 26, 2009

Sufi Prem-2

आज मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैं “गेहूँ” हूँ ; सूफी और प्रेम एक चक्की के दो पाट । उन पाटों को समझने की कोशिश में गेहूँ पिस ज़रूर रहा है लेकिन समझ नहीं पा रहा । मेरा दावा है कि मैं सूफी प्रेम को नहीं समझता लेकिन मेरा यह भी दवा है कि मैं सूफी प्रेम का दिवाना  हूँ । वो प्रेम जो निर्मल है, निश्छल है, निस्वार्थ है । वो प्रेम जो देह के दस्तरख़ान पर दावत नहीं बल्कि रूह के रेगिस्तान में रवानगी है, वो प्रेम जो ज़मीन से उठ कर आसमान तक जाता है। वो प्रेम जो ख़लिश से ख़्वाहिश बनता है, ख़्वाहिश से कोशिश बनता है, कोशिश से किवायत बनता है और किवायत से करामात । वो प्रेम जो ख़ुशी और ख़ुमारी की मल्कियत आपको सौंप देता है । वो प्रेम जो कभी पंजाब में  नज़र आता है ,कभी इरान या अफगानिस्तान में ,कभी किताब में नज़र आता है,कभी विचार या इंसान में। यह सूफी प्रेम है जो हिन्दुस्तान की रगों में ख़ून की तरह उतर गया। #SufiPrem(Irshad_Kamil)

2 responses to “Sufi Prem-2”

  1. Yogesh says:

    Tum saath ho ya na ho kya fark hai
    Bedard thi zindagi bedard hai – Irshad
    Almost cried at this line today 🙂

  2. Irshad Kamil says:

    Yogesh, Connection is important with any form of art. Connection guides emotions. Thanks for connecting with that ‘Tamasha’ song.

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